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कोपलें
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मिटटी खोद कर अपनी ..
जड़ें निकालनी है तुम्हारी ..
की, खबर नहीं होती कब?
मौसम बदल जाता है, और
मैं बरस जाती हूँ…
फिर …
धरती का सीना चीर कर,
निकल ही आती हैं कोपलें
तुम्हारे प्यार की….
wonderful poem dear…you can share your poem at Saavan.in
thanks preeti