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Social प्राणी
Hindi Poetry |
बहुत दिन हो गए…
बहुत दिन होना भी कितना ज़रूरी है,
बर्तन खाली न होगा, तो भरने का
ख़्याल भी कैसे आएगा
ये कोई जिस्मानी ख़ुराक़ नहीं
कि बिना ज़रूरत भी मिले तो अपच हो
ये तो मन की भूख है…
जब बहुत दिन हो जाते हैं
अपने अपनों की आवाज़ सुने
या रु ब रु उनसे मिले-जुले
जब लगता है कि वाक़ई कब से
उन से न बोला न बताया कुछ
तो अचानक यादों की उंगलियों में
हरकत होती है
मोबाइल का की पैड उभरता है
नंबर डायल होते हैं
या ज़्यादा नहीं तो कम से कम
‘सोशल’ किसी साइट पे पृथ्वी का ये
सामाजिक प्राणी
अपनी फ़िक्रमंदी बयान करते हुए
चंद अल्फ़ाज़ दर्ज़ करता है,
” हाय! वाट्सअप…और क्या चल रहा है?