« हैं एक हजारों जैसों में , पहले थे एक हजारों में | कि साँस टूटे मेरी तेरी नर्म बाँहों में » |
ढूढ़ रहे है हम ?
Hindi Poetry |
किस मर्ज़ की दवा ढूढ़ रहे है हम ?
न जाने कौन सी सुबह ढूढ़ रहे है हम ।
इस मतलबी दुनिया में ,
न जाने कौन सा अपना ढूढ़ रहे है हम ।
यहाँ सब रिश्तों की बुनियाद स्वार्थ है ,
जो रिश्ता हो निःस्वार्थ ,
वो रिश्ता ढूढ़ रहे है हम ।
न जाने अब भी उनकी नफरतो में ,
कौन सा प्यार ढूढ़ रहे है हम ?
सब कहते है की चाँद में दाग है ,
फिर भी चाँद बेदाग़ ढूढ़ रहे है हम ।
पत्थरों की इस दुनिया में ,
वो सच्चे आंसुओं का सैलाब ढूढ़ रहे है हम।
बिक गयी है जज की कुर्सिया भी अब ,
फिर भी इन्साफ ढूढ़ रहे है हम ।
दिखती नहीं खुद की गलतिया ,
और औरो का पाप गिन रहे है हम ।
न जाने कौन सा वो एहसास ढूढ़ रहे है हम ?