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कह कर मना किया है “शकील” अखबार वाले को…………
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सुबह सुबह अखब़ार देखा वो कभी ऐसा नहीं था
हर्फ़ कोई यूँ मेरी उंगली थामे तो चलता नहीं था
एक सफ़्हे पर कुछ तस्वीरें थी इंसानों की थीं शायद
हांथों में लिए कुछ मौत का सामन खड़े थे
देखा हुआ चेहरा था कभी चाय की दूकान पे कहीं
है वो कातिल, हर्फों ने कहा पहले ऐसा लगता नहीं था
फिर आगे बढ़ा तो देखा एक बूढी अम्मा का चेहरा
झुर्रियों में छुपती हुई अश्कों की बुँदे थी शायद
रोती थी सफ़ेद चादर देख कर बेटा था शायद उसका
उठाती थी उसको अब पहले सा वो भी उठता नही था
एक मासूम फूल सा चेहरा सड़क के किनारे दिखा
तस्वीर भी नम थी अखब़ार के आंसू थे शायद उस पर
कितने आरमान कितने ख़्वाब बिखरे थे साथ किताबों के
खिलौना था हाथ में उसके मगर वो खेलता नहीं था
कुछ सफ़ेद पोश लोग भी नज़र आये थे तस्वीरों में
ये वही हैं जो आग लगते नज़र आये थे पिछली बार
मैं भी नाराज़ हूँ उनसे मगर मैं इंसान ठहरा
और अखबार तो बेज़बान है वो खुद बोलता नहीं था
जलाकर घर गरीब का देखते नज़र आये कुछ लोग
बड़े से शहर में एक छोटा सा घर ही फिर जला
धुआं धुआं सा हर का चेहरा हो गया था अब तक
कितनी सच्ची कहानियाँ तो वो कभी कहता नहीं था
अब मुझे मालूम है कौन सी तस्वीर क्या खबर होगी
कहानियाँ तबाही की वो नहीं दूसरा कोई शहर होगा
कह कर मना किया है “शकील” अखबार वाले को
ख़बर वो नहीं उसमे जो में अब जनता नहीं था
aaj ke haalat par zordaar tanz.
वाह वाह क्या बात है, बहुत खूब
“कह कर मना किया है “शकील” अखबार वाले को
ख़बर वो नहीं उसमे जो में अब जनता नहीं था”
बहुत भायी सारी style और गहन अंदाज़े बयाँ ये
ऐसा अलग सा आप लिखें, मन आया आनंद बड़ा था . ..
Loved the intensity