« सूखे पत्ते! | तुम्हें क्या पड़ी है…! » |
विद्रोह
Hindi Poetry |
विद्रोह
अंडज तोड़े अपना आवरण
जीवनदाता
पोषणकर्ता !
खगशावक छोड़े अपना नीड़
आश्रयदाता
रक्षाकर्ता !
उद्भिज उगता
चीर के छाती
उर्वर धरती की !
कभी-कभी अपना अस्तित्व बचाने को,
आगे कदम बढाने को.
बहुत कुछ सहना होता है.
अनपेक्षित भी करना होता है.
मैंने भी तो
इस अंधियारे से बाहर आने को
खुद में खुद को पाने को
रीति रूढी को छोड़ा है .
अपने मकडजाल को तोडा है.
फिर…
बाहर इतना कोलाहल क्यों है ?
-मनोज भारत
भीतर से बाहर की यात्रा मन भायी बधाई !!
@santosh bhauwala, dhanyawad
@santosh bhauwala,
Dhanyavad ji
कभी कभी कुछ नया परिवर्तन कोलाहल का कारण बन ही जाता है , और ऐसे परिवर्तन के लिए सर पे कफन बांध कर निकलना जरुरी है , अति सुन्दर – बधाई
@Swayam Prabha Misra,
Bahut Aabhar
पढ़ते पढ़ते अन्तः को टटोल सी गयी,
कुछ राज दे गयी और कुछ राज खोल सी गयी !
@Harish Chandra Lohumi, Apki snehmayi tippani ke liye dhanyavad