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मक्कड़ जाल सी जिंदगी !
Hindi Poetry |
मक्कड़ जाल सी उलझती जा रही है जिंदगी ,
ना शुरूवात का पता, ना अंत समझ आता है ,
जाना किधर है ,कही और चला जाता हूँ ,
जीतने कदम चलता हूँ उतना उलझ जाता हूँ !
चंद दीवारों के सहारे टीका हूँ मैं ,
इन्ही के बीच जिंदगी झूलती है मेरी ,
एक से चल कर दूसरी पे जाता हूँ ,
फिर चंद पलो मे वहीं नज़र आता हूँ !
ये जो चंद घेरे नज़र आते है मुझमे ,
कुछ बड़े तो कुछ छोटे से दिखते है ,
ये सभी मेरी नाकामीबियों की दास्तान है ,
जो विफलता से शुरू हो वही लौट आते है !
कभी कोई राही मुझे आशियाँ समझ चला आता है ,
वो भी मेरी बदनसीबी का शिकार हो जाता है ,
उलझ कर मेरी ही तन्हाइयों के समुंदर मे ,
खुद को भी मेरी कहानी का हिस्सा बना पाता है !
अब तोड़ने बैठा हूँ एक एक तार को ,
राह कठिन है पर नामुमकिन नही ,
एक दिन हर बंदिशों को तोड़ दूँगा ,
खुद को मुक्त कर जिंदगी से नाता जोड़ लूँगा !
इस मक्कड़ जाल ने आज हर जिंदगी को घेरा है ,
इसने ही बिछाया मनहूसियत का आँधेरा है ,
खुद की ताक़त को एक बार जो पहचान पाएगा ,
वो मक्कड़ जाल की परिधि से दूर चला जाएगा !
डॉक्टर राजीव श्रीवास्तवा
बढ़िया अंदाज़ की जिन्दगी पर अलग सी रचना
बहुत मन भाया इसे इसकी सुन्दर लय में पढ़ना
गलत छपे शब्द
टीका, नाकामीबियों, आँधेरा.
जब बार-बार नाकामियों से सामना हो तो वास्तव में ऐसा ही प्रतीत होता है राजीव जी ! लेकिन समाधान तो आखिर है ही ना——–
खुद की ताक़त को एक बार जो पहचान पाएगा ,
वो मक्कड़ जाल की परिधि से दूर चला जाएगा !
बधाई !!!
सुन्दर रचना राजीवजी …
बधाई !!! 🙂