« हम तो देते थे बनने संवरने उन्हें | हाइकु » |
मैं क्या बोलूँ ?
Hindi Poetry |
मैं क्या बोलूँ ?
बोलने को अब कुछ शेष नहीं |
मैं क्या बोलूँ ?
कौन सी भाषा, कैसे वाक्य, कैसे शब्द,
किन शब्दों में बोलूँ ?
मैं क्या बोलूँ?
बोलने को अब कुछ शेष नहीं |
सच पूछो तो,
शब्द आकाश का तत्व है, मौन धरा का |
फिर भला कैसे !
धरा अपने मौन से, आकाश के शब्द से प्रतिस्पर्धा करे |
भला कैसे ?
जबकि धरा तो नीले वितान के तले,
आकाश की कृपा के तले,
दबी सी.. आहत सी…
शब्दों के बाणों से भेदी हुई सी,
असह्य पीड़ा सहती हुई सी,
करोडों को पलती है |
फिर भला !
मैं क्या बोलूँ ?
बोलने को अब कुछ शेष नहीं |
कुछ शेष नहीं,
शेष है तो असह्य पीड़ा, सहन शक्ति,
एक अनचाहा उत्तरदायित्व और एक चुपचाप मौन |
फिर भला !
मैं क्या बोलूँ?
बोलने को अब कुछ शेष नहीं |
(रूचि मिश्रा)
सुन्दर चित्रण किया धरती की पीड़ा का आपने
कुछ हाइकु style में हो जाये……
@nitin_shukla14,
जी धन्यवाद्
हाइकु की पहल
विचारणीय
रचना का अंदाज़ अति सुन्दर और बहुत मनभावन
रचना भी अच्छी बहुत भायी
पर लगा की शायद थोड़े और refinement से outstanding होगी .
@Vishvnand,
Thanks a lot sir for your nice comments and suggestion. I will try to refine it more.
अति सुन्दर रचना है रूचि हार्दिक अभिनन्दन
@vibha mishra,
Thanks vibha..
सुन्दरता से लिखी एक अच्छी रचना .
@Swayam Prabha Misra,
Thanks a lot..