“ग्लोबल वार्मिंग”
कैसा घोर कलयुग है आया,
संतुलन प्रकृति का है बिगड़ गया,
प्रकृति ही नहीं ब्रम्हांड भी आज बिखर गया.
इस युग का काल बना एक प्राणी,
जानबुझकर उसने महाविनाश की नींव रखी.
तपती तेज किरणें सुरज की कमजोर निकलीं,
छेद दिया इस मानव जाति ने ओझोन लेयर,
दिनप्रतिदिन पिघलता जा रहा ग्लेशियर,
बढ़ता जा रहा विशाल समुंदर का जलस्तर,
विलुप्त होती जा रहीं प्रजातियाँ अनगिनत.
हरेभरे उपवन को क्यों तुने उजाड़ दिया ?
ऎ मानव तुने विनाश के श्राप को आमंत्रित किया.
बिगड़ता मौसम भी देखो अचंभित हुआ,
ले लो सर्दी में गर्मी, गर्मी में सर्दी का मजा.
बारिश ऐसी की रिकार्ड पिछला टूट गया,
बदौलत सुनामी की आयलैंड सारा डूब गया.
चाँद पर जा मीलों दूर घर बसाया,
पर आनेवाली पीढ़ी का आशियाँ उधेड़ दिया.
मानव ही आज महाविनाश का कारण बन गया,
सच में कुछ ही दिनों की मेहमान है यह दुनिया,
अमानत थीं पुर्वजों की यह धरती मईया,
जख्म देकर उन्हें इंसानों ने इतना कुरेद दिया,
सदमा अपने विनाश का वह बरदाश्त न कर पाई,
आंसुओं से भीगे आंचल को भी वह समेट न पाई,
दे रही होगी मानव जाति को दुहाई…………………
राजश्री राजभर…………
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a very nice poem on Global Warming
liked it
thanx sir for ur best comment.
एक सामयिक व महत्वपूर्ण विषय पर बहुत ही अच्छी कविता, राजश्री जी, बधाई, पर इस समस्या से निबटने के लिए क्या किया जाए इसके बारे में भी इस कविता में कुछ लिखा जाता तो और अच्छा होता.
Thanx alot sir for ur comment n ur suggetion mai jarur koshish karungi.
बहुत अच्छे विचार हैं आप के …हार्दिक शुभकामनाएं !
Thanx kishanji for ur best comment.
बहुत सुन्दर भावनिक कविता,
विषय पर सत्य उजागर करती हुई.
मानव की करतूतों पर कटाक्ष .
पर हम सुधरेंगे नहीं है विश्वास …. 🙁
हार्दिक बधाई …
Apne bilkul sahi kaha sir ki hum sudhrenge nahi.Thank u so much sir for ur encouraging comment.
nice poetry
बहुत अच्छा प्रयास. बधाइयाँ!!