« मेरे पापा! | हम बदले या वो बदले » |
जियें बम या हम?
Hindi Poetry |
“शहर कितना है पुराना, काश कि ज़ख्म भी होता
कहीं दबी रहती इक टीस, आती न सिसकी
मगर ये कौन है दुश्मन जिसे तहज़ीब नहीं
बड़े धोखे से फिर छू गया है दुखती रग को
उड़ा दिए हैं अमन, चैन और नींदों के परखच्चे
गए उस वक़्त की धमक फिर बरपी है
हैं दहशतज़दा कल फिर स्कूल न जा पायेंगे बच्चे
घिर गया ये शहर ज़लील वारदातों से
फटी आँखें हैं और आवाज़ों के चिथड़े
सब तो डरते हैं गुनाहगारों कि घातों से
ज़हरीली है सच्चाई हम बेबस हैं बड़े
मगर क्या मार ही सकते हैं ख़ुद को जीते जी?
तोड़ के नींद, ख़ुद को हम जिला सकते हैं
हम चाहें तो कई शक्लें हमें पहचानेंगी,
कुछ नहीं, कुछ तो नम आँखों में ताब ला सकते हैं.
(५-६ वर्ष पूर्व मुंबई की बसों में हुए विस्फोटों ने १९९३ का दर्द लहकाया.
काल की क्रूरता देखिये, २००८ में आतंकवाद के ज़हरीले सांप ने फिर धोखे से डसा )
ताब = चमक जो धुंधलापन हटाये
जिला = रौशनी जो नींद से जगाये
संवेदनाओं और आक्रोश से भरी एक उत्तम रचना दोस्त 🙂
धन्यवाद प्राची!
टीस का आईना ही तो बनना चाहता है कवि मन…बस वही किया.
Bahut achchhi rachna likhi hai aapne……
Kyon ho jate hai hum bebas bade ?
Jinhone yah halat paida kiye hai,
kyon na ho unke chhati par khade……?
बेशक़ डॉ. साब, मुझे लगता है हर किसी का खून खौलता है इसके लिए…
पर इंक़लाब का दौर हमारी आज की पीढ़ी ने एक तरह से भुला सा दिया है…
उम्मीद बेहेरहाल, रौशन है मादर-ए-हिंद की,
क़ुरबानी ले के कोई सरफ़रोश बढ़े अपनी जिंद की…
इन आतंकी वारदातों पर कविमन की भावनाओं का सुन्दर वर्णन/चित्रण
रचना के लिए हार्दिक बधाई..
सब तो डरते हैं गुनाहगारों कि घातों से
ज़हरीली है सच्चाई हम बेबस हैं बड़े,
अब तक लड़ रहे हैं सिर्फ बातों से …. 🙁
साहब, शुक्रिया!
धन्यवाद आदरणीय काव्य-मित्र त्रय प्राची, पालीवाल एवं विश्वनंद, आपकी सराह्नाये उत्साह वर्धक हैं हमेशा ही…
दिल की बेबसी को बखूबी बयान करती सुन्दर रचना. जाने कब तक ये बेबसी और लाचारी हार का कारण बनती रहेगी और हकीकत अंजाम लेगी.
राज साहेब, पालीवाल जी को लिखा उत्तर, आप को भी सादर प्रेषित है…कृपया पढ़िए ज़रूर.